जैनधर्म के अनादिनिधन दशलक्षण महापर्व, भादों शुक्ला पंचमी से भादों शुक्ला पूर्णिमा- 14 सितम्बर से 24 सितम्बर 2018 के शुभ उपलक्ष्य में प्रस्तुत


 दशलक्षण धर्म (Dus Lakshan Dharam) एवं उनका महत्व - गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी

उत्तम क्षमा धर्म - जो क्षमा देवी की उपासना करके हमेशा सभी कुछ सहन कर लेता है वह उपसर्गों और परीषहों को जीतकर पार्श्वनाथ तीर्थंकर के सदृश महान हो जाता है। क्या क्रोध से शांति हो सकती है ? क्या बैर से बैर का नाश हो सकता है ? क्या खून से रंगा हुआ वस्त्र  खून से ही साफ हो सकता है ? यदि अपकार करने वाले के प्रति तुझे क्रोध आता है तो फिर तू क्रोध पर ही क्रोध क्यों नहीं करता है ? क्योंकि यह क्रोध तो तेरे दोनों लोकों को विनाश करने वाला महाशत्रु  है। पांडव, गजकुमार आदि महामुनि अपने प्राणों का घात करने वाले महाशत्रुओ  को भी क्षमा करके ‘सर्वंसह’ सिद्ध हो गये हैं उनको मेरा नमस्कार होवे। द्रव्य और भाव इन दो प्रकार के क्रोध को मैं अपने आत्मचिन्तन के बल से भेदन करके उत्तम क्षमा से युक्त अपने ज्ञान और सौख्य को निश्चित रूप से प्राप्त करूंगा, हमेशा ऐसी भावना भाते रहना चाहिये।

उत्तम मार्दव धर्म - मृदु का भाव मार्दव है, यह मार्दव मानशत्र्ाु का मर्दन करने वाला है, यह आठ प्रकार के मद से रहित है और चार प्रकार की विनय से संयुक्त है। देखो, इन्द्र नाम का विद्याधर इन्द्र के समान वैभवशाली था फिर भी रावण के द्वारा पराजय को प्राप्त हुआ है और वह रावण भी एक दिन मान के वश में नष्ट हो गया, अतः मान से क्या लाभ है ? मैंने इस संसार में ऊँच और नीच सभी पर्यायें धारण की हैं। अहो! मैंने इन्द्रों के सुख भी प्राप्त किये हैं और हा! खेद है कि निगोद पर्याय में दुःख भी प्राप्त किये गये हैं। देखो, चक्ररत्न को धारण करने वाले भरत चक्रवर्ती भी वृषभाचल पर्वत को देखता है पुनः उस पर से अक्षर को मिटाकर वह अपनी प्रशस्ति को लिखता है। अपने आत्मगुणों के सन्मान से अपने आत्मा के आनन्दरूपी अमृत को चखना चाहता हूँ। अपने स्वाभिमानमय पद में स्थित होकर मैं ज्ञानादिगुण को प्राप्त कर लूँ, मेरी यही भावना है, प्रत्येक व्यक्ति को ऐसी भावना सदा भाते रहना चाहिये।

उत्तम आर्जव धर्म - ऋजु अर्थात् सरलता का भाव आर्जव है, अर्थात् मन-वचन-काय को कुटिल नहीं करना। इस मायाचारी से अनंतों कष्टों को देने वाली तिर्यंच योनि मिलती है। सगर राजा ने सुलसा से स्वयंवर में मायाचारी से मधुपिंगल का अपमान किया था। पुनः वह
मधुपिंगल मरकर ‘काल’ नाम का असुर देव हो गया और उसने द्वेष में आकर हिंसामयी यज्ञ को चला दिया। मृदुमति नाम के मुनि ने मायाचारी की, जिसके फलस्वरूप वह त्र्ािलोकमंडन हाथी हो गया। इसलिये इस माया नाम की महादेवी को धिक्कार हो! धिक्कार हो! कि जिसके प्रसाद से यह जीव संसार में परिभ्रमण करता है। सरल भाव से ऊर्ध्वगति होती है। इसका अर्थ यह भी है कि ऋजुगति से जीव मोक्ष गमन करता है और कुटिलता से चारों गतियों में अर्थात् वक्रगति में संसार में भ्रमण करता है। अतः बहुत अधिक कहने से क्या इसमें से तुझे जो रुचता है सो कर। पर वस्तु से विश्वास को त्याग कर मैं अपने में आप स्वयं स्थित होकर मन-वचन-काय को स्थित करके अपने रत्नत्र्ाय को प्राप्त करूँगा, ऐसी भावना प्रतिदिन भाते रहना चाहिये।

उत्तम सत्य धर्म - सत् अर्थात् समीचीन और प्रशस्त वचन सत्य कहलाते हैं। ये वचन अमृत से भरे हुये हैं। मिथ्या अपलाप करने वाले और धर्मशून्य वचन सदा छोड़ो। गर्हित, निंदित, हिंसा, चुगली, अप्रिय, कठोर, गाली-गलौच, क्रोध, बैर आदि के वचन, सावद्य के वचन और आगम विरुद्ध वचन इन सबको छोड़ो। देखो! श्रीवंदक नाम बौद्ध मंत्र्ाी असत्य वचनों के द्वारा क्षण मात्र्ा में आँखों से अंधा हो गया। वसु राजा भी असत्य के पक्ष में सातवें नरक में चला गया। सत्य, प्रिय, हितकर और सुन्दर वचन सर्वसिद्धि को देने वाले हैं। इस लोक में विश्वासघात के समान महापाप कोई नहीं है। हे आत्मन्! अपने से भिन्न परद्रव्य को अपना मत बनाओ और अपने में अपने को अच्छी तरह से ध्याकर अपनी आत्मा के आल्हादमय सुख को प्राप्त करो, ऐसी भावना सतत भाते रहना चाहिये।

उत्तम शौच धर्म - शुचि-पवित्र्ाता का भाव शौच है अर्थात् अंतरंग के लोभ को दूर कीजिये और जो निर्लोभवती देवी है उसकी नित्य ही उपासना कीजिये। राजा कृतवीर ने जमदग्नि ऋषि को मारकर उसकी कामधेनु का अपहरण कर लिया। तब ऋषि पुत्र्ा परशुराम ने भी क्रुद्ध होकर इक्कीस बार राजवंश को समूल नष्ट कर दिया। ‘देहि’ अर्थात् देओ! इस वाक्य से निश्चित ही वह मनुष्य अणु के समान लघु हो जाता है और देने वाला दाता लोक में आकाश के समान विशाल और कीर्तिमान हो जाता है। श्रावक हमेशा जल आदि से बाह्य शुद्धि करते हैं और साधुगण तथा ब्रह्मचारी जन आत्म शुद्धि करते हैं। मैं ज्ञानरूपी अमृत से हमेशा आत्मा के कर्म मल को दूर करते हुए स्वयं शौच गुणों से पवित्र्ा अपनी आत्मा के सुखरूपी अमृत को प्राप्त करूँगा, प्रत्येक व्यक्ति को हमेशा ऐसी भावना करते रहना चाहिये।

उत्तम संयम धर्म - संयत मुनियों में प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा दो भेद हैं। पाँच स्थावर और त्र्ास ऐसे षट्काय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है और पाँच इन्द्रियों तथा मन का जय करना इन्द्रिय संयम है। हे भगवन्! जीवों से ठसाठस भरे हुये इस संसार में मैं कैसे प्रवृत्ति करूँ ? कैसे बोलूँ ? और कैसे भोजन करूँ ? कि जिससे पाप का बन्ध नहीं होवे। इस प्रकार से प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि यत्नपूर्वक आचरण करो, यत्नपूर्वक भाषण और भोजन करो तथा यत्नपूर्वक संपूर्ण क्रिया करने से तुम्हें पाप का बन्ध नहीं होगा। देखो! सीता का जीव जब अच्युतेन्द्र हुआ तब ‘एक व्रत को धारण करने से रावण मेरे साथ बलात्कार करने के लिये प्रयत्नशील नहीं हुआ’ ऐसा सोचकर वह अच्युतेन्द्र नरक में जाकर रावण को सम्यक्त्व ग्रहण कराकर वैर का त्याग कर देता है। मैं सर्व इन्द्रिय और मन को नियन्त्र्ाित करके अपनी आत्मा में स्थित करना चाहता हूँ कि जिससे कर्म और कर्म के फल को भोगता हुआ किंचित् मात्र्ा खेद को न प्राप्त होऊँ, प्रतिदिन ऐसी भावना भाते रहना चाहिये।

उत्तम तप धर्म - तप के बाह्य और आभ्यंतर से युक्त बारह भेद कहे गये हैं। अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शयनासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान ये छह अंतरंग तप हैं। सम्यक् तप जीव के संसार समुद्र में पतन को रोक लेते हैं। मनुष्य काय को कृश करके अपने अनंतबल और सुख को प्राप्त कर लेता है। एक रानी ने मय नाम के ऋद्धियुक्त मुनि का स्पर्श करके विष से मूर्छित अपने पति राजा सिंहेंदु का स्पर्श किया तो उसी क्षण वे निर्विष हो गये पुनः उन मुनि की पूजा की। तप के प्रभाव से दीप्त तप, तप्ततप आदि ऋद्धियाँ प्रगट हो जाती हैं फिर भी वे साधु उनसे निस्पृह रहते हैं अतः वे ‘तपोधन’ इस सार्थक नाम से पुकारे जाते हैं। संपूर्ण इच्छाओं का निरोध करके मैं सम्यक् तप को तपकर ध्यानरूपी अग्नि में कर्म ईंधन को डालकर शुद्ध हो जाऊँगा, ऐसी भावना से ही कर्म नष्ट होते हैं।

उत्तम त्याग धर्म - ‘रत्नत्र्ाय का दान देना वह प्रासुक त्याग कहलाता है और तीन प्रकार के पात्र्ाों के लिए चार प्रकार दान देना भी त्याग है’ ऐसा आर्ष में कहा है। राजा वज्रजंघ ने रानी श्रीमती के साथ वन में युगल मुनि को आहारदान दिया था, जिसके फलस्वरूप वे वृषभ तीर्थंकर हुए हैं तथा उनकी रानी श्रीमती भी उसी के प्रभाव से आगे राजा श्रेयांस होकर दानतीर्थ के प्रवर्तक हुए हैं। श्रीकृष्ण ने एक मुनि को औषधिदान दिया था, जिससे उन्हें महान तीर्थंकर बनने के समान पुण्य की प्राप्ति हुई। सच्चे शाó के दान से एक ग्वाला अगले भव में कौंडेश मुनि होकर श्रुतज्ञानी हुआ। वसतिका के दान के प्रभाव से सूकर ने स्वर्ग को प्राप्त कर लिया। मैं भी रत्नत्र्ाय का दान अपने को देकर सर्वगुणों से परिपूर्ण स्वात्म तत्त्व को शीघ्र ही प्राप्त कर लेऊँ और उसी में लीन हो जाऊँ, ऐसी भावना प्रत्येक व्यक्ति को भाते रहना चाहिए।

उत्तम आकिंचन्य धर्म - ‘न मे किञ्चन अकिञ्चनः’ मेरा कुछ भी नहीं है अतः मैं अकिञ्चन हूँ। फिर भी मेरी आत्मा अनंतगुणों से परिपूर्ण है। मैं सदा परद्रव्य से भिन्न हूँ और तीन लोक का अधिपति महान् हूँ। यह अणुमात्र्ा भी परवस्तु को जब तक अपनी मानता रहता है तब तक संसार में भ्रमण करता रहता है और जब काय से भी निर्मम हो जाता है तब लोक के अग्रभाग में विराजमान हो जाता है। जमदग्नि मुनि ने óी आदि का परिग्रह स्वीकार कर लिया अतः वह संसार समुद्र में डूब गया। सच है, दीर्घ भार लेकर मनुष्य ऊपर कैसे गमन कर सकता है ? शरीर से भी निःस्पृह हुए साधु पिच्छी, कमण्डलु और शाó को ग्रहण करते हैं फिर भी अपनी आत्मा में एकाग्र होते हुए आतापन आदि योगों में स्थित हो जाते हैं। हे भगवन्! आपके प्रसाद से शीघ्र ही मुझ में ऐसी शक्ति उत्पन्न हो जावे, कि मैं पर्वत पर, कन्दराओं में और दुर्ग आदि प्रदेशों में अपनी आत्मा का ध्यान करते हुए सिद्धि पद को प्राप्त कर लेऊँ, ऐसी भावना सदा भाते रहना चाहिए।

उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म - ‘आत्मा ही ब्रह्म है उस ब्रह्मस्वरूप आत्मा में चर्या करना सो ब्रह्मचर्य है अथवा गुरु के संघ में रहना भी ब्रह्मचर्य है। इस विधचर्या को करने वाला उत्तम ब्रह्मचारी कहलाता है। जिस प्रकार से एक (1) अंक को रखे बिना असंख्य बिन्दु भी रखते जाइये, किन्तु क्या कुछ संख्या बन सकती है ? नहीं, उसी प्रकार से एक ब्रह्मचर्य के बिना अन्य व्रतों का फल कैसे मिल सकता है अर्थात् नहीं मिल सकता। पहले बिना भोगे भी जिन्होंने इस विश्व को उच्छिष्ट के सदृश समझकर छोड़ दिया है, मैं उन बाल ब्रह्मचारियों को नमस्कार करता हूूँ। देखो! सुदर्शन सेठ ने ब्रह्मचर्याणुव्रत का ही पालन किया था, फिर भी वे आज तक यशस्वी हैं। सीता के शील के माहात्म्य से अग्नि भी जल का सरोवर हो गई थी। मैं भी सर्व विकल्पों को छोड़कर अपने ब्रह्मस्वरूप आत्मा में रमण करके ज्ञानवती लक्ष्मी को प्राप्त करके पुनः निश्चिंत हो तीन लोक का स्वामी हो जाऊँगा, ऐसी भावना सतत करनी चाहिए।

इस प्रकार जैनधर्म में बताये गये आत्मा के इन मूलभूत 10 गुणों का सदैव स्मरण करके अपने जीवन में इन दश सिद्धान्तों को अवश्य अपनाना चाहिए। प्रतिवर्ष अनादिकालीन दशलक्षण महापर्व भक्तों को इन सिद्धान्तों को स्मरण कराने के लिए भाद्रपद मास में आता है, जिसको मनाकर भक्तजन अपनी आत्मविशुद्धि का अवसर प्राप्त करते हैं। इस महापर्व के समापन पर क्षमावणी पर्व भी मनाने की परम्परा है, जिसको मनाकर सभी श्रावक-श्राविकाएं परस्पर में किसी भी निमित्त से होने वाली मनोमलिनता को दूर करके आपस में क्षमाभाव धारण करते हैं। क्षमा धर्म से ही यह पर्व प्रारंभ होता है और इसी क्षमा धर्म के साथ पर्व का समापन होता है। अतः सहिष्णुता प्राप्त करके क्रोध का दमन करते हुए सदैव अपने जीवन में क्षमा का भाव धारण करना चाहिए और साथ ही अपनी आत्मा को सदैव मानरहित, सरल, पवित्र, सत्य, संयम, तप, त्याग, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य के भावों से विशुद्ध करना चाहिए।