स्वाधीनता
संग्राम के बडे़ सेनानियों में लाला लाजपतराय का नाम भी बड़े आदर के साथ लिया जाता
है। स्वतंत्राता सेनानी कई प्रकार के हुए हैं। प्रथम वे जो आजादी की लड़ाई लड़ने
के आरोप में अंग्रेज सरकार द्वारा फांसी के फंदे पर लटका दिए गए। द्वितीय वे
जिन्हें लम्बी-लम्बी
सजाएं अथवा काले पानी का दण्ड दिया गया। तृतीय वे जिन्होंने प्रत्यक्ष रूप से नहीं
बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से स्वाधीनता का युद्ध अपनी कलमों द्वारा लड़ा।
काले
पानी की सजा पाने वालों में लाला जी भी एक थे जिन्होंने काले पानी की यंत्राणाएं
सहन की पर उफ तक न की। उन्होंने देश को गुलामी से मुक्ति दिलवाने के लिए हजारों
कष्ट सहे पर कभी अंग्रेजों के आगे झुके नहीं।
लाहौर
आकर उन्होंने आर्य समाज प्रचार के आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लिया जिसके परिणाम स्वरूप
उनका नाम सारे पंजाब में लोगों की जुबां पर आने लगा। वे प्रसिद्धि के शिखर पर
पहुंच गए। जनता उनका आदर करने लगी और उन्हें नेता मान कर उनके द्वारा निर्धारित
मार्ग पर पग बढ़ाने लगी।
कहने
को लाला जी कांग्रेसी थे पर उनके विचार नरम दल के नेताओं से विपरीत थे। वे क्रांतिकारी
स्वभाव के होने के बावजूद भी गांधी जी का आदर करते थे। लाला जी एक महान वक्ता थे
और हमेशा हिन्दुस्तानी में बोला करते थे। जब कभी वे भाषण देते थे तो श्रोता उनके
शब्दों में जादू में बंध जाया करते।
1919 में
भारत के शासन विधान में अंग्रेज सरकार ने कुछ सुधार किए पर ये सुधार इतने कम तथा
अधूरे थे कि कोई भी इनसे संतुष्ट नहीं था। ब्रिटिश सरकार ने भारत को वचन दिया था
कि 10 वर्ष के पश्चात सरकार
को अगर महसूस हुआ कि भारतवासी अपनी स्वतंत्राता को संभालने के काबिल हैं तो उन्हें
स्वतंत्राता दी जाएगी। इसी वचन को निभाने के लिए इंग्लैंड पार्लियामेंट ने एक
कमीशन की नियुक्ति की पर इस ’साइमन कमीशन‘ नामक कमीशन में एक भी भारतीय सदस्य नहीं
था जो एक तरह से भारत का अपमान था। इसलिए भारत के लोगों ने इस कमीशन का बहिष्कार
करने का निश्चय किया।
जहां
जहां भी यह साइमन कमीशन गया वहां पर इसका स्वागत काली झंडियों से तथा ’साइमन कमीशन
वापस जाओ‘ के नारों से दिया गया। इस कारण से सरकार क्रोध से भर उठी और उसने
बर्बरता के साथ इन प्रदर्शनों को दबाने की भरपूर कोशिश की पर जनता कब झुकने वाली
थी। प्रदर्शनों का जोर ज्यों का त्यों बना रहा।
’साइमन
कमीशन‘ 30 अक्टूबर
1928 को लाहौर पहुंचा।
लाला जी का गढ़ भी लाहौर था। यह कैसे हो सकता था कि यहां लाला जी का गढ़ हो और
वहां पर कमीशन का स्वागत न हो। काली झंडियों के साथ, साइमन वापस जाओ के नारे लगाते हुए लोगों
का जन समूह जुलूस की सूरत में निकल पड़ा था अपने घरों से। सरकार ने धारा 144
लागू कर दी पर जनता
ने इस धारा की कहां परवाह की।
कमीशन
का बहिष्कार करने के लिए स्टेशन पर अपार भीड़ थी। इस बड़े जनसमूह का नेतृत्व स्वयं
लाला जी कर रहे थे। घुड़सवार पुलिस जुलूस का रास्ता रोक कर खड़ी थी। अचानक जुलूस
में भगदड़ मच गई थी क्योंकि पुलिस ने लाठियां बरसानी आरंभ कर दी थी पर लाला जी
सबसे आगे तन कर खड़े थे। पुलिस कप्तान साण्डर्स ने एक गोरे सिपाही को लालाजी पर
लाठियां बरसाने का हुक्म दिया। फिर क्या था। तड़ातड़ तड़ातड़ उस गोरे सिपाही ने
लाला जी पर अनगिनत लाठियों के प्रहार किये। एक भरपूर लाठी का प्रहार उनकी छाती पर
पड़ा और वे धरती पर कटे वृक्ष की भांति गिर पड़े।
शाम
को एक विशाल सभा का आयोजन किया गया जिसमें लाला जी ने भाषण दिया जो उनके जीवन का
अंतिम भाषण बन गया। उन्होंने गरजते हुए कहा था! मेरे जिस्म पर पड़ी, अंग्रेज सरकार की एक एक लाठी की चोट,
अंग्रेजी साम्राज्य
के ताबूत में एक एक कील बनेगी। उनकी यह बात 19 वर्षों के पश्चात् अक्षरशः सत्य सिद्ध
हुई थी।
उस दिन के पश्चात् उन्हें
ज्वर ने पकड़ लिया। सत्राह दिन तक बीमार रहने के बाद 1928 की 17 नवम्बर को वे सदा सदा के लिए सो गए। सदा गरजते रहने वाला एक
शेर हमेशा हमेशा के लिए खामोश हो गया। भारत की स्वतंत्राता की क्रांतिकारी लड़ाई
का एक चिराग बुझ गया। उनके पश्चात आज तक पंजाब में अन्य कोई ऐसा नेता नहीं हुआ जो
उनका स्थान ले सकता। (युवराज