स्त्रीवाद और नारीवाद के नाम से अब भी मुहं बिचकाते हैं लोग

स्त्रीवाद और नारीवाद के नाम से अब भी मुहं बिचकाते हैं लोग
हमारी छिन्नमस्ता: स्त्री विमर्श को नई राह दिखाने वाली प्रभा खेतान के अवदान पर चर्चा सत्र में रूपा सिंह ने वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया, रेखा सेठी, आरती और तराना परवीन ने बातचीत की।रूपा सिंह ने सत्र शुरू करते हुए कहा कि जानी – मानी महिला उद्मी और छिन्नमस्ता, स्त्री उपेक्षिता, अन्या से अनन्या, उपनिवेश में स्त्री जैसी महत्वपूर्ण रचनाएं लिखने वाली स्त्रीवादी लेखिका प्रभा खेतान को भारत की सिमोन दी बुवऑर कहा जा सकता है। प्रभा खेतान दर्शन शास्त्र की विद्यार्थी थी, और उन्होने सार्त्र के अस्तित्ववाद पर पीएचडी की थी, जिसका प्रभाव उनकी लेखनी में झलकता रहा है। सत्र में लेखिकाओं ने मुखरता से कहा कि प्रभा खेतान की लेखनी के ज़रिए पितृसत्ता, लैंगिक असमानता और समाज के स्टीरियोटाइपिंग से जुड़े मसलों पर बहुत बारीकी से लिखा है। प्रभा खेतान बेबाकी से एक बड़ी होती लड़की के संघर्षों और सामाजिक रवैयों के बारे में लिखती हैं, और निस्सन्देह ही आने वाले समय में उनके कार्यों और रचनाओं का अधिक सशक्त रूप से मूल्यांकन होगा।
परिचर्चा के दौरान प्रभा खेतान के निजी जीवन के दुखों और समस्याओं पर भी बातचीत हुई। प्रभा खेतान एक विवाहित पुरुष के प्रेम में रहीं, एक उपेक्षित बचपन से गुज़रीं और यहां तक कि उनके सगे भाई ने उनका बलात्कार किया। शायद यही दर्द रहा, जो उनकी कहानियों में गाहे – बगाहे दिखता रहा।
सत्र में ममता कालिया ने कहा कि प्रभा खेतान एक सफल व्यवसायी भी रहीं। वे इस बात की मजबूत पक्षधर रहीं कि स्त्री स्व – रोजगार की ओर बढ़ सकती है और अपनी कमाई कर पाने में ही सच्चे मायनो में उसकी आत्म – निर्भरता है। ममता कालिया ने साफ़गोई से कहा कि एक औरत की आज़ादी इस बात पर निर्भर करती है कि उसके पर्स में कितने पैसे हैं।
साथ ही एक सशक्त कविता की पंक्तियों से कालिया ने संवाद को विराम दिया,
जैसे – जैसे लड़की बड़ी होती है, उसके सामने एक दीवार खड़ी होती है
क्रांतिकारी कहते हैं दीवार तोड़ देनी चाहिए, लेकिन लड़की है समझदार और सहनशील
वह दीवार पर लगाती है खूंटियां पढ़ाई और रोज़गार की
और धीरे – से दीवार के पार हो जाती है ।
जबरन पाकित्सान को बनाया जा रहा है दुश्मन
पाकिस्तान, जो एक मृतप्राय देश है, जिसे जबर्दस्ती हमारे परम् शत्रु की तरह दिखाया जा रहा है – यह कहना था अरुण शर्मा का, जिन्होने यह खलनायक समय: गांधी बनाम गोडसे जैसे संवेदनशील विषय पर हुए सत्र में साफ़गोई से अपनी बात रखी। शर्मा ने कहा कि यह खलनायक समय है और इस किस्म की विचारधारा से देश के नागरिकों को भड़काया जा रहा है, और ध्रुवीकरण की राजनीति विकसित की जा रही है। एक सांसद खुलेआम नाथूराम गोडसे को देशभक्त कह जाता है, और उसके खिलाफ कुछ नहीं होता। क्या यह उचित है? ग्वालियर में गोडसे का मन्दिर है, और इससे क्या साबित होता है? यह एक खतरा है और धीरे – धीरे हम सब तक आएगा। सत्र में इस प्रकार के सुलगते सवालों पर बातचीत हुई।
सत्र में सुज्ञान मोदी और अरुण शर्मा से नरेश दाधीच ने यह जानने की कोशिश की कि क्या आज के दौर में हिंसा बढ़ती जा रही है? दाधीच ने सत्र की भूमिका रखते हुए कहा कि अहिंसा सभी धर्मों का मूल तत्व है और शारीरिक बल ही हिंसा नहीं है, बल्कि किसी पर विचार थोपना भी हिंसा ही है। वहीं गांधी पर आधारित महात्मा के महात्मा किताब लिखने वाले सुज्ञान मोदी ने गांधी के बारे में बताते हुए कहा कि उन्होने देश भर के लोगों के मानस को बखूबी समझा, और फिर अगुवाई की।
निजी जिन्दगी में पिताजी बड़े शैतान थे: परीक्षित साहनी
मैं और मेरे पिताजी ज्यादा करीब ना रहे सके इसका मुझे हमेशा मलाल रहेगा। वे कमाल के वालिद थे। जैसे माता पिता अपने बच्चों को सिखाते हैं कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है, मेरे वालिद साहब ने कभी नहीं कहा कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। यह कहना था फिल्म अभिनेता परीक्षित साहनी का, जो अपने पिता बलराज साहनी पर उनकी लिखी गई किताब द नॉन कन्फर्मिस्ट  पर चर्चा कर रहे थे। वे एक वाकया बताते हैं कि बलराज साहनी को तैरने का बड़ा शौक था। जितना तूफानी माहौल हो, तैरने का उतना ही मजा आता है। पिताजी हमेशा कहते थे कि समंदर तुम्हारी मां की तरह है और यह तुम्हें कुछ होने नहीं देगा। उन्हें ज़बान से बहुत प्यार था। वे कहते थे कि जितना तुम अपनी माँ को जानते हो उससे ज्यादा तुम्हें अपनी ज़बान जाननी चाहिए।
परीक्षित साहनी से बातचीत के दौरान जब पत्रकारिता की छात्राएं ईशा, अभिलाषा और दिशा ने आज के दौर के सिनेमा और उनके पिताजी के दौर के सिनेमा में अंतर पूछा, तो उन्होंने कहा कि पिताजी के बाद समाज बहुत बदला है। आज तकनीकी लिहाज़ से सिनेमा बहुत आगे निकल गया है। जमाने के साथ साथ फिल्में भी काफी बदल गई है। बलराज साहनी की शख्सियत के बारे में वे बताते है कि वे निजी जिन्दगी में इतने गंभीर नहीं थे, बल्कि बड़े शैतान थे।
दो बीघा जमीन से जुड़ा एक वाकया बताते हुए कहते हैं कि फिल्म के लिये असल में अशोक कुमार को कास्ट किया गया था। फिल्म में बलराज साहनी का अभिनय देखने के बाद अशोक कुमार ने कहा था कि मैं जब भी किसी दूसरे की फिल्म देखता हूं, तो मुझे लगता है कि मैं इससे बेहतर कर सकता हूं, लेकिन जब मैंने बलराज को देखा तो लगा कि इससे बेहतर मैं नहीं कर सकता।
पन्द्रह रीटेक देने पर थूकने का सीन हुआ ओके
बॉलीवुड के मशहूर अभिनेता परीक्षित साहनी ने अपनी उर्दू ज़बान सीखने के बारे में बताते 
हुए कहा कि उन्होंने गुल - गुलशन - गुलफाम धारावाहिक करते समय यह ज़बान सीखी और जब वे यह धारावाहिक कर रहे थे, तो उनके पास पाकिस्तान, लंदन और अन्य देशों से चिट्ठियां आने लग गई कि तुम सबसे  अच्छे मुसलमान हो। साहनी ने हाल ही मिली पिता बलराज साहनी के जीवन पर लिखी 
किताब के बारे में चर्चा करते हुए बताया कि बलराज साहनी एक अच्छे अभिनेता के अलावा,अच्छे पिता, अच्छे भाई और अच्छे पति थे। उन्होंने बताया कि उनके पिता ने उन्हें जीवन के सबक़ कैसे सिखाए। घटना सुनाने हुए उनकी आँख में आँसु भी आ गए ।
एक बार एक फ़िल्म में परीक्षित साहनी उधम सिंह की भूमिका निभा रहे थे, वहाँ बलराज साहनी उसी फ़िल्म में गांधीवादी विचारधारासे प्रेरित किरदार कर रहे थे, इस फ़िल्म में उन्हें अपने ही पिता के मुँह पर थूकना था। तो  उन्होंने पहले तो इनकार कर दिया, बाद में उन्होंने थोड़ा साइड में थूक दिया। लेकिन पिता  बलराज साहनी इससे संतुष्ट नहीं हुए, क़रीब 15 रीटेक के बाद उन्होंने जब बलराज साहनी के मुँह पर थूका, तब जाकर वह सीन ओके हुआ।
जन गीतों से बल्ली सिंह चीमा ने किया व्यवस्था की खामियों पर चोट
तेरे होंठों पर मेरा नाम ख़ुदा ख़ैर करे
एक मस्जिद पर श्रीराम लिखा हो जैसे
जन कवि बल्ली सिंह चीमा ने आज समानान्तर साहित्य उत्सव के एक सत्र में इन पंक्तियों को गुनगुनाया, तो माहौल ख़ुशनुमा हो गया। इसके साथ ही बल्ली सिंह चीमा ने अमेरिका  पर एक कविता सुनाई और अमेरिका के बाजारवाद पर कटाक्ष किया। बल्ली सिंह चीमा ने  अपने अलग -अलग कविता संग्रहों में से कई कविताएँ सुनाई, जिसमें ख़ास तौर पर एक कवि के रूप में  वर्तमान स्थितियाँ और अपनी मजबूरियों को भी इन शब्दों में कुछ यूं कहा -
भुलाकर फ़िक्र रोटी की, भुलाकर दर्द दुनिया के, अभी संभव नहीं मुझसे तुम्हारे प्यार पर लिखना
मुझे वो रोज़ कहते हैं गुलो-गुलजार पर लिखना, कहा है कल के दंगे में जले बाज़ार पर लिखना 
भुलाकर फ़िक्र रोटी की, भुलाकर दर्द दुनिया के, अभी संभव नहीं मुझसे तुम्हारे प्यार पर लिखना
हैं उनकी झील सी आँखें, है उनका चाँद सा चेहरा, मगर लाज़िम हुआ बल्ली अभी तलवार पर लिखना 
बल्ली सिंह चीमा ने वर्तमान समय की कई व्यवस्थाओं पर कविताओं के ज़रिए प्रकाश डाला,महिला सशक्तिकरण पर भी उनकी सुनाई गई कविता को लोगों ने सराहा। इस दौरान   श्रोत्ताओं की फ़रमाइश पर उन्होंने अपनी लोकप्रिय जन कविता ले मशालें चल पढ़े हैं लोग मेरे गाँव के को भी सुनाया । 
मेरे विकलांग होने से घर और दादी कभी अकेले नहीं होते - प्रदीप सिंह
एक सत्र के दौरान यह कविता सुनाई पूरी तरह से दिव्यांग कवि प्रदीप सिंह ने। प्रदीप सिंह ने अपनी कमजोरी को अपनी ताक़त बनाते हुए  अपने जीवन में संघर्ष की कहानी श्रोत्ताओं के साथ साझा की। लेखक मायामृग के साथ एकचर्चा में उन्होंने कहा मैंने यह स्वीकार कर लिया है कि मैं ये ही हूँ। हर व्यक्ति की कुछ सीमांएं होती हैं, मेरी थोड़ी दूसरों से अलग हैं। इसलिए मैं कभी दुखी नहीं होता, बल्कि इस  जीवन को अब मैं हंसकर ही बिताना चाहता हूं। ग़ौरतलब है कि प्रदीप हिसार के रहने वाले हैंऔर विकलांगता के चलते उनको बोलने में भी दिक़्क़त होती है। उनकी थकान से आगे और वरक़-दर-वरक़ नाम से दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। मंच पर इस दौरान उनकी माता और एक दोस्त ने उनकी बातों को लोगों में सामने रखने में मदद की। 
मेरी नजर में प्रतिरोध यथास्थिति का विरोध है - अजय ब्रह्मात्मज
दूर हटो, दुनिया वालो, हिंदुस्तान हमारा है - जैसे नारों को याद करते हुए प्रतिरोधी सिनेमा पर जवाहर कला केंद्र में चल रहे समानांतर साहित्य उत्सव में परदे पर आक्रोश की परछाईया: प्रतिरोध का सिनेमा सत्र का आयोजन किया गया। सत्र में प्रतिरोधी सिनेमा की चर्चा के साथ साथ फ़िल्म निर्माण में औद्योगिक घरानों के बढ़ते प्रवेश पर भी चर्चा की गई। सत्र में राजेश बादल, अजय ब्रह्मात्मज, अविनाश त्रिपाठी और मोनालिसा जैसे फ़िल्म निर्माता और समीक्षक मंच पर उपस्थित थे।
फिल्मकार और कवयित्री मोनालिसा ने कहा कि मैं प्रतिरोधक फिल्मो की समर्थक हूँ। उनका कहना था कि प्रतिरोधक सिनेमा सिर्फ विषय आधारित सिनेमा नही हैं। एक जमाना था, जब मणि कौल, कुमार साहनी जैसे फिल्मकारों की फिल्में विचारों को झकझोरती थी। ऋत्विक घटक, सत्यजीत रे जैसे फिल्मकारों ने विषय आधारित फिल्में बड़ी ही सक्षमता से बनाई है।
साथ ही फिल्मों को मिलने वाली आर्थिक समस्या के बारे में भी परिचर्चा की गई। फ़िल्म समीक्षक राजेश बादल ने प्रतिरोधी सिनेमा पर अपने विचार व्यक्त करते हुए 70 के दशक के बाद आई फिल्मों चक्र, आक्रोश, मंडी, अर्धसत्य का जिक्र क़िया। उनका कहना था किआज के सिनेमा में व्यक्ति की तारीफ तो है, परन्तु आलोचना नही है।
वही फिल्मकार अविनाश त्रिपाठी के अनुसार, प्रतिरोध का तेवर अपने अंदर जिंदा रहना चाहिए। उन्होंने इटली के फिल्मकार की कही गई बात का उदाहरण देते हुए बताया कि फ्रेंच सिनेमा के पास यदि धन की कमी है, तो नए नए विचारों की अधिकता है। अमेरिकन सिनेमा के पास धन तो है, पर नए विचारों की कमी है। वहीं उन्होंने राजेश खन्ना की रोमांटिक फिल्मों के साथ गुलज़ार की आंधी का भी जिक्र किया।
इसी के साथ फिल्मकार अजय ब्रह्मात्मज ने कहा कि ऐसा माना जाता है कि राजनीतिक फिल्में ही प्रतिरोध सिनेमा की फिल्में है, परन्तु मेरा मानना है कि वह सिनेमा भी प्रतिरोध सिनेमा का उदाहरण है, जिसमें अमीर-गरीब के बीच के प्रेम, जातिगत भेदभाव, सेठ, साहूकार, जमींदार को चित्रित किया जाता था। साथ ही कहा कि  मेरी नजर में यथास्थिति का विरोध ही प्रतिरोध है। जरूरी नहीं, नारे देकर सत्ता पलटने की बात को ही प्रतिरोध कहा जाए । आज सच्चाई यह है कि, हम मेनस्ट्रीम सिनेमा को ही देखना चाहते है, प्रतिरोध सिनेमा को नही। उन्होंने मुक्कबाज और थप्पड़ जैसी आज की फिल्मों का भी जिक्र किया।
सत्र के अंत में आज के समय में विज्ञान की उपज डिजिटल फॉरमेट पर भी फिल्मकार मोनालिसा ने अपने विचार रखे। वहीं फ़िल्म समीक्षक बादल ने कहा आज सिनेमा थिएटर  मल्टीप्लेक्स में बदल रहा है, जो हमारी आदिवासी, ग्रामीण ऑडियंस की पहुंच से दूर है। अविनाश त्रिपाठी ने सिनेमा को एक अनुभव बताया और साथ ही कहा कि फिल्ममेकर को गेहूं और गुलाब में सन्तुलन बनाना आना चाहिए। वहीं ब्रह्मात्मज ने कहा कि प्रतिरोध हर दौर में रहा है। सत्र का समापन मंचासीन अतिथियों की इसी परिचर्चा के साथ श्रोताओं के सवालों से किया गया।
पहले जमाने में औरतों का जेन्डर तक छिपाया जाता था: शाहिना रिज़वी
उर्दू में बेबाक अंदाज की शुरुआत गालिब के दौर से शुरू हुई। बेबाक अंदाज वो है जब दूर बैठे को पास बताया जाये - कुछ ऐसी ही बातें कही डॉ सरवत खान ने, जो उर्दू अदब पर अपने विचार रख रही थी। प्रोफ़ेसर शाहिना रिज़वी ने कहा कि जिन्दगी की कोई बुराई ऐसी नहीं है, जो सिर्फ मुझे दिखाई दी हो। प्रतिरोध को हम नया नहीं कह सकते, बल्कि यह तो पहले से चला आ रहा है। तरक्की पसन्द का मतलब मंजिल – ब - मंजिल तरक्की करते रहना है। सच तो यह है कि पहले औरत का जिक्र भी जेन्डर के साथ नहीं किया जाता था, ताकि पता ना चले कि औरत की बात हो रही है। वहीं दूसरी और वसीम राशिद ने कहा कि तरक्की पसंद अदब में हम जी रहे है, हमें जीना सिखा रहे है।
तकनीक से वास्ता रखें नई पीढ़ी - जगरूप सिंह यादव
नवोन्मेष मंच पर पूर्व जयपुर कलेक्टर जगरूप सिंह यादव ने युवाओं के साथ चर्चा करते हुए वर्तमान जीवन में विज्ञान और तकनीक का महत्वपूर्ण हिस्सा है। उन्होंने कहा कि ज्ञान से विज्ञान बना है और विज्ञान जीवन को आसान करता है। उन्होंने बैलगाड़ी और एसटीडी-पीसीओ का उदाहरण देते हुए कहा कि किसी समय पर ये दोनों हमारे जीवन में महत्वपूर्ण  भूमिका निभाते थे, लेकिन तकनीक हमेशा बदलती रहती है और पुराने आविष्कार अप्रासंगिकहो जाते हैं। ऐसे में सभी युवाओं के लिए यह महत्वपूर्ण है कि आर्टिफिशिअल इंटेलिजेंस औररोबोटिक्स को अंगीकार करें। जगरूप सिंह यादव ने बताया कि कैसे जब राजीव गांधी की  पहल से कम्प्यूटर आम आदमी की पहुँच में आया, तो भारतीय बहुसंख्यकों ने इसका जमकरविरोध किया था। लेकिन बाद में इसी देश के युवाओं की मेहनत के चलते हमारा देश आईटीकी दुनिया का सिरमौर बन गया। 
जो आधी रात में
फिसलकर खिड़की पर आती है
जो आसमान में बारिश की
एक बूंद ठहर जाती है
वही तो मैं हूँ - जैसी पंक्तियों के माध्यम से जयपुर की युवा कवयित्री ईशा सिंह ने अपने विचारों को कविता के माध्यम से प्रकट किया। मौका था, समानान्तर साहित्य उत्सव में चल रहे ओपन माइक – नवोन्मेष का, जिसमें युवा वर्ग ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। ओपन माइक में प्रतिभागियों ने कविताओं और गायन कला के माध्यम से श्रोताओं का मनोरंजन किया। उत्सव में महर्षि अरविंद महाविद्यालय, आईआईएस यूनिवर्सिटी, ज्ञानविहार महाविद्यालय जैसे संस्थानों से विद्यार्थियों ने भाग लिया। प्रतिभागियों में ईशा सिंह, उस्मान शेख, अमित अग्रवाल, मोहित बंसल जैसे विद्यार्थियों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया।
युवा गायक और लेखक उस्मान शेख ने अपने स्वरचित गानों के माध्यम से माहौल को खुशनुमा बना दिया। साथ ही रघुवीर पूनिया के द्वारा बजट 2020 पर चर्चा की गयी। कार्यक्रम में दो किताबों का विमोचन किया गया, जिनमें जयंत गुप्ता की प्रगति पथ और आमिर सुहैल साबिर अली की अरब का राही का विमोचन किया गया।